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यादें इस हफ्ते शब्द चर्चा

कर्ज उतर जाता है एहसान
नहीं उतरता

राही मासूम रजा

यहाँ (बंबई में) कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी। कृष्ण चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गए होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता। शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था। उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की। इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की। इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिए और उस काम की मजदूरी दी। पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हूँ।
मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर होली फैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहाँ से लाना था। सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपए थे। तब कमलेश्वर ने 'सारिका' से, भारती ने 'धर्मयुग' से मुझे पैसे एडवांस दिलवाए और कृष्ण जी ने अपनी एक फिल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिये और मरियम घर आ गईं। आज सोचता हूँ कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे। कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। कलकत्ते से ओ.पी. टाँटिया और राजस्थान से मेरी एक मुँहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेहँदी रजा और दोस्त कुँवरपाल सिंह ने मदद की। कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता। और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आतीं पर उन्हें याद करो तो आँखें नम हो जाती हैं।
जब मैं अलीगढ़ से बंबई आया तो अपने छोटे भाई अहमद रजा के साथ ठहरा। छोटे भाई तो बहुतों के होते हैं, पर अहमद रजा यानी हद्दन जैसा छोटा भाई मुश्किल से होगा किसी की तकदीर में। उसने मेरा स्वागत यूँ किया कि मैं यह भूल गया कि फिलहाल मैं बेरोजगार हूँ। हम हद्दन के साथ ठहरे हुए थे, पर लगता था कि वह अपने परिवार के साथ हमारे साथ ठहरे हुए हैं। घर में होता वह था जो मैं चाहता था या मेरी पत्नी नैयर चाहती थी। वह घर बहुत सस्ता था। जिस फ्लैट में अब हूँ उससे बड़ा था। इसका किराया 600 दे रहा हूँ। उसका किराया केवल 150 रुपए माहवार था। तो हद्दन ने सोचा कि वह घर उन्हें मेरे लिए खाली कर देना चाहिए। रिजर्व बैंक से उन्हें फ्लैट मिल सकता था, मिल गया। जब वह जाने लगे तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ साजिश की कि घर का सारा सामान मेरे लिए छोड़ जाएँ क्योंकि मेरे पास तो कुछ था नहीं। जाहिर है कि मैं इस पर राजी नहीं हुआ। उन दोनों को बड़ी जबरदस्त डाँट पिलाई मैंने।
चुनांचे वह घर का सारा सामान लेकर चले गए और घर नंगा रह गया। मेरे पास दो कुर्सियाँ भी नहीं थीं। हम ने कमरे में दो गद्दे डाल दिए और वही दो गद्दोंवाला वीरान कमरा बंबई में हमारा पहला ड्राइंग रूम बना... उन दिनों मैं नैयर से शर्माने लगा था। मैं सोचता कि यह क्या मुहब्बत हुई, कैसी जिंदगी से निकाल कर कैसी जिंदगी में ले आया मैं उस औरत को जिसे मैंने अपना प्यार दे रक्खा है... अपना तमाम प्यार। मगर नैयर ने मुझे यह कभी महसूस नहीं होने दिया कि वह निम्नमध्यवर्गीय जिंदगी को झेल नहीं पा रही है। हम दोनों उस उजाड़ घर में बहुत खुश थे। उन दिनों कृष्ण चंदर, सलमा आपा, भारती और कमलेश्वर के सिवा कोई लेखक हमसे जी खोल के मिलता नहीं था। हम मजरूह साहब के घर उन से मिलने जाते तो वह अपने बेडरूम में बैठे शतरंज खेलते रहते और हम लोगों से मिलने के लिए बाहर न निकलते। फिरदौस भाभी बेचारी लीपापोती करती रहतीं... कई और लेखक इस डर से कतरा जाते थे कि मैं कहीं मदद न माँग बैठूँ।...
आप खुद सोच सकते हैं कि हमारे चारों ओर कैसा बेदर्द और बेमुरव्वत अँधेरा रहा होगा उन दिनों। नैयर लोगों से मिलते भी घबराती थीं, इसलिए मिलना-जुलना भी कम लोगों से था और बहुत कम था... कि एक दिन सलमा आपा आ गईं। इन्हें आप सलमा सिद्दीकी के नाम से जानते हैं। उस वक्त हम दोनों उन्हीं गद्दों पर बैठे रमी खेल रहे थे। सलमा आपा बैठीं। इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर वह चली गईं और थोड़ी देर के बाद उनका एक नौकर एक ठेले पर एक सोफा लदवाए हुए आया। हमने उस तोहफे को स्वीकार कर लिया, कि जो न करते तो सलमा आपा और कृष्ण जी को तकलीफ होती और हम उन्हें तकलीफ देना नहीं चाहते थे।


'सर्कार अंग्रेजी का न्याय स्वाभाविक' था, इसलिए वह चाहती थी कि 'जैसे लड़के पढ़ते लिखते हैं वैसे ही लड़कियाँ भी इस विद्यारत्न से निराश न हों।' 'मुसलमानों की लड़कियों के पढ़ने के लिए तो एक-दो पुस्तकें जैसे मिरातुल उरूस बन गई हैं, परंतु हिंदुओं व आर्य्यों की लड़कियों के लिए ऐसी पुस्तक देखने में नहीं आई... बड़े सोच-विचार और ज्ञान-ध्यान के पीछे दो वर्ष में उसी ध्यान से बनाया - निश्चय है कि इस पुस्तक में हिंदुओं की लड़कियों को हिंदुओं की रीति-भाँति के अनुसार लाभ पहुँचे और सुशील हों...'
यह पुस्तक थी - वामा शिक्षक और इसके लेखक थे मुंशी ईश्वरी प्रसाद और मुंशी कल्याण राय। इस का प्रकाशन 1883 में विद्यादर्पण छापखाना, मेरठ से हुआ। आजकल उस जमाने की ऐसी किताबों को पढ़ने के पहले ही खारिज कर देने का रिवाज है, परंतु इस उपन्यास की संपादक और प्रस्तुतकर्ता गरिमा श्रीवास्तव का कहना है : 'हालाँकि उपन्यास में 'स्त्री समानता की बात कहीं नहीं कही गई है, लेकिन स्त्रियों का शिक्षित होना और अज्ञान से ज्ञान की और बढ़ना 'पितृसत्तात्मक' समाज व्यवस्था' में पुरुषवादी वर्चस्व को कमजोर करने के लिए उठाए गए कदम के रूप में देखा जाना चाहिए।'

महावीर प्रसाद द्विवेदी
विमर्श
हिंदी भाषा की उत्पत्ति

रवि रंजन
आलोचना
विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यासों का समाजशास्त्र

कहानियाँ
द्विजेंद्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’ : साबुन
चंद्रकिरण सौनरिक्सा : हिरनी
गंगाप्रसाद विमल : मैं भी जाऊँगा
सिल्विया प्लाथ : सपनों की बाइबल

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
व्यंग्य
श्रीमती गजानन शास्त्री

आर अनुराधा की कविताएँ
स्तन कैंसर के प्रदेश से

अलिफ लैला
शहजादा खुदादाद और दरियाबार की शहजादी की कथा
दरियाबार की शहजादी की कहानी
सोते-जागते आदमी की कहानी
अलादीन और जादुई चिराग की कथा

पिछले हफ्ते

नामवर सिंह के गीत

एकांकी
जगदीशचंद्र माथुर : रीढ़ की हड्डी

कहानियाँ
उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ : डाची
विष्णु प्रभाकर : रहमान का बेटा
कबीर संजय : पत्थर के फूल
सविता पाठक : नीम के आँसू

निबंध
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी : वृद्धावस्था

संजय कुंदन की कविताएँ

अलिफ लैला
नूरुद्दीन और पारस देश की दासी की कहानी
ईरानी बादशाह बद्र और शमंदाल की शहजादी की कहानी
गनीम और फितना की कहानी
शहजादा जैनुस्सनम और जिन्नों के बादशाह की कहानी

कुछ गाँठ की कुछ बंधन की
अजित वडनेरकर

गठबंधन बड़ा मजे़दार शब्द है। यह दो अलग-अलग शब्दों से मिल कर बना है – गठ + बंधन। गठ शब्द बना है संस्कृत की धातु ग्रथ् से। इस से ही बना है ग्रन्थः जिसका मतलब हुआ एक जगह जमा, झुण्ड, लच्छा, गुच्छा आदि। पुस्तक, किताब, साहित्यिक रचना, प्रबंध जैसे अर्थोंवाला ग्रन्थ इसी से जन्मा है। गौर करें कि पुस्तक विभिन्न पृष्ठों का समुच्चय या झुण्ड है। ग्रन्थ से बनी ग्रन्थिः। इससे ही हिन्दी में बने गाँठ या गठान जिसका मतलब है रस्सी का बंधन, जोड़, उभार, जमाव आदि। गाँठ जिस्म में भी पड़ती है और मन में भी। मन की गाँठ भी किन्हीं विचारों का जमाव ही है जो ग्रन्थि के रूप में हमारे व्यवहार में नजर आता है। रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय। जोड़े से भी ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ि जाय।
शरीर की पेशियों, नसों में भी अक्सर ग्रन्थि विकसित हो जाती है जो त्वचा पर उभार ला देती है। इसे भी गाँठ ही कहते हैं। सिखों में जो पुरोहित होता है, वह ग्रन्थी कहलाता है। यह बना है संस्कृत के ग्रन्थिकः से। पुरोहितों का काम पोथी-पुराणों के बिना चलता नहीं, सो ग्रन्थ से जुड़ा ग्रंथी। कपडों, किताबों या अन्य वस्तुओं की पैकिंग को गट्ठर कहा जाता है। पोटली को गठरी कहते हैं। ये भी ग्रंथ से बने हैं। अच्छी तंदुरुस्ती वाले को गठीला, सजीला भी कहा जाता है। फलों के बीज आम तौर पर गुठली कहलाते हैं जो इससे ही संबंधित है। एक कहावत ने तो आम की गुठली को ही मशहूर कर दिया है।
जब ग्रन्थ के पन्नों को जोड़ा जा रहा होता है तो इस क्रिया को ग्रन्थनम् कहते हैं। इससे ही बना है गाँठना। यानी चीजों को मिलाना, जमाना, एक साथ रखना। आज गाँठना शब्द से बने रौब गाँठना, रिश्ते गाँठना जैसे मुहावरे प्रचलित हैं। गाँठना शब्द आज नकारात्मक अर्थ में ही प्रयोग होता है। यानी जोड़-जुगाड़ में लगे रहना।
जब गाँठने की क्रिया सम्पन्न हो जाती है तो उस का गठन हो जाता है। यानी उसका समु्च्चय बन जाता है। एकता के अर्थ में संगठन शब्द इससे ही बना है। ग्रन्थ से बने और भी कई शब्द हिन्दी की विभिन्न बोलियों में तलाशने पर मिल जाएँगे जैसे - गठीला, गठौत, गठड़िया और गठजोड़ आदि।
संस्कृत की बंध् धातु से ही बना है हिन्दी का बंधन शब्द। इसी तरह रोकना, ठहराना, दमन करना जैसे अर्थ भी बंध् में निहित हैं। हिन्दी-फारसी के साथ-साथ यूरोपीय भाषाओं में भी इस बंधन का अर्थ विस्तार जबरदस्त रहा। जिससे आप रिश्ते के बंधन में बँधे हों वह कहलाया बंधु अर्थात भाई या मित्र। इसी तरह जहाँ पानी को बंधन में जकड़ दिया उसे कहा गया बाँध। बंधन में रहनेवाले व्यक्ति के संदर्भ में अर्थ होगा बंदी यानी कैदी। इस से ही बंदीगृह जैसा शब्द भी बना। बहुत सारी चीजों को जब एक साथ किसी रूप में कस या जकड़ दिया जाए तो बन जाता है बंडल। गौर करें तो हिन्दी-अंग्रेजी में इस तरह के और भी कई शब्द मिल जाएँगे, मसलन - बंधन, बंधुत्व, बाँधना, बंधेज, बाँधनी, बाँध, बैंडेज, बाउंड, रबर बैंड, बाइंड, बाइंडर वगैरह-वगैरह। अंग्रेजी के बंडल और फारसी के बाज प्रत्यय के मेल से हिन्दी में एक मुहावरा भी बना है - बंडलबाज जिसका मतलब हुआ गपोड़ी, ऊँची हाँकनेवाला, हवाई बातें करनेवाला या ठग। इस रूप में आपस में गठबंधन करनेवाले सभी नेता बंडलबाज समधी हुए कि नहीं?
अब बात करें फारसी में संस्कृत बंध् के प्रभाव की। जिस अर्थ प्रक्रिया ने हिन्दी में कई शब्द बनाए उसी के आधार पर फारसी में भी कई लफ्ज बने हैं, जैसे बंद: जिसे हिन्दी में बंदा कहा जाता है। इस लफ्ज के मायने होते हैं गुलाम, अधीन, सेवक, भक्त वगैरह। जाहिर-सी बात है कि ये तमाम अर्थ भी एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के प्रति बंधन ही प्रकट कर रहे हैं। इसी से बना बंदापरवर यानी प्रभु, ईश्वर। वही तो भक्तों की देखभाल करते हैं। प्रभु में लीन हो जाना, बँध जाना ही भक्ति है। इसीलिए फारसी में भक्ति को कहते हैं बंदगी। इसी तरह एक और शब्द है बंद, जिसके कारावास, अंगों का जोड़, गाँठ, खेत की मेड़, नज्म या नग्मे की एक कड़ी जैसे अर्थों से भी जाहिर है कि इसका रिश्ता बंध् से है।

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